पार्वती ने अचानक महादेव से कहा- 'प्रभु जीव लोक में यह प्राणी दुखी क्यों है? इसके दुख दूर करने का कोई उपाय कीजिए न।' पार्वती का यह कहना भर होता है कि महादेव उस व्यक्ति के दुख दूर करने में लग जाते है। यह वह दिखाने भर के लिए नहीं करते। यह तो शिव का स्वभाव है।
शिव कहते हैं - तुम मन के भीतर, आत्मा के भीतर जितना भी चाहो, बढ़ते चलो, लेकिन बाहरी जगत में क्या हो रहा है, उसकी उपेक्षा मत करो। क्योंकि बाहरी जगत की उपेक्षा से तुम्हारा अंतर जगत भी प्रभावित होगा। इस प्रकार शैव मत या शैव धर्म बन गया भारत का प्राण धर्म। शिव का धर्म ईश्वर की प्राप्ति का धर्म है। इसी कारण इसमें यज्ञ करते हुए घी की आहुति देकर, पशु रक्त की आहुति देकर तुच्छ आत्मतृप्ति पाने का पथ यह नहीं है। उन्होंने स्वयं यह घोषणा की है - धर्म परम संप्राप्ति का पथ है, पाशविक सुख भोग का पथ नहीं है।
शिव व्यावहारिक जीवन में अति कोमल हैं। शिव की नीति है - मनुष्य है, वह तो भूल चूक करेगा ही। क्योंकि वह मनुष्य है, देवता तो नहीं है। जब वैदिक देवता इंद्र, अग्नि, वरुण इत्यादि भी भूल करते थे तो भला साधारण मनुष्य भूल क्यों नहीं कर सकता। इस कारण शिव साधारण मनुष्य के प्रति बहुत उदार थे। उनका विचार था, कि साधारण मनुष्य ने आज भूल की है, तो वह कल सुधर भी सकता है।
आज अगर रास्ते पर चलते हुए उसके कपड़ों पर धूल-कीचड़ लग गया तो कल वह साफ कपड़े पहनने का सुयोग क्यों नहीं पा सकता? हां, अन्याय से शिव को घृणा थी। जिसने अन्याय किया है उस पर त्रिशूल से प्रहार करो। जिस समय उसने अपनी भूल को सुधार लिया है, उसी समय उसे प्यार से गोद में बैठा लो। अर्थात् उन्होंने जो भी किया, वह मनुष्य में सुधार के लिए ही किया।
शिव को प्रणाम करते समय कहा जाता है - हे पिनाकपाणे, हे वज्रधर तुम्हें नमस्कार करता हूँ, क्योंकि तुम्हारा यह वज्र मनुष्य को तकलीफ देने के लिए नहीं बल्कि उसे सुधारने के लिए है। वे मन-प्राण से अपने अतीत का सब कुछ भूल जाते हैं। इसीलिए अनुतप्त मनुष्य शिव के सामने नतमस्तक होकर कहा करता है - तुम्हारी शरण में नहीं आऊं तो फिर किसकी शरण में जाऊं, तुम्हें छोड़ मुझे और कौन शरण देगा। तुम तो भोलेनाथ हो, मैंने इतने पाप किये हैं, उन्हें सुधार देने के साथ ही तुमने मुझे क्षमा भी कर दिया। हे ईश्वर, तुम इतनी-सहजता से संतष्ट हो जाते हो, सच में तुम आशुतोष हो।
आर्य जिन असुरों से सबसे अधिक घृणा करते थे, उन असुरों ने शिव से शरण मांगी। शिव ने असुरों को भी शरण दी। ऐसे अनेक चित्र हैं जिनमें असुर गण स्तुति के लिए शिव के पास खड़े हैं, उन्हें वरदान मिल रहा है। यही नहीं, शिव उनकी सहायता के लिए देवताओं के विरुद्ध स्वयं आगे बढ़ रहे हैं। देवता का अर्थ है- आर्य, और आर्यों ने असुरों का ध्वंस चाहा था।
जैसे आर्यों ने भारत की अनेक उपजातियों का विध्वंस कर दिया था, उन्होंने असुरों का भी ध्वंस कर देना चाहा था। शिव ने उन्हें बचाया था। शिव ने कहा था कि यदि मैं इन्हें न बचाऊं तो फिर कौन बचाएगा। ये लोग किस के आश्रय में जाएंगे? शिव ने यह स्वीकार करने से इनकार कर दिया था, कि आर्यगण ही श्रेष्ठ हैं और असुरगण श्रेष्ठ नहीं हैं।
शिव कहते है कि यह बात तो कोई भी किसी प्रकार मुझे नहीं समझा सकता। इस प्रकार आर्य-अनार्य संघर्ष के समय के बीच की अवस्था में शिव का अविर्भाव हुआ था। शिव ने यही चाहा है और ऐसा काम भी किया है जिससे आर्य-अनार्य, मंगोल जातियां शांतिपूर्ण ढंग से जीवनयापन कर सकें। शांतिपूर्ण ढंग से जीवनयापन करने के लिए सभी को एक आदर्श को स्वीकार करना ही होगा। आदर्श आपस में टकराएंग तो संघर्ष होगा। शांतिपूर्ण ढंग से सह-अस्तित्व की स्थापना नहीं हो सकेगी।
शिव ने सब को सिखाया है - तुम सब परम पिता की संतान हो। तुम्हें इस पृथ्वी पर भाई-भाई की तरह, भाई-बहन की तरह रहने का अधिकार है।
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