‘रात्रि’ वास्तव में अज्ञान, तमोगुण अथवा पापाचार की निशानी है। अत: द्वापरयुग और कलियुग के समय को ‘रात्रि’ कहा जाता है। कलियुग के अन्त में जब साधू, सन्यासी, गुरु, आचार्य इत्यादि सभी मनुष्य पतित तथा दुखी होते है और अज्ञान-निंद्रा में सोये पड़े होते है, जब धर्म की ग्लानि होती है और यह संसार विषय-विकारों के कारण वेश्यालय बन जाता है, तब पतित-पावन परमपिता परमात्मा शिव इस सृष्टि में दिव्य-जन्म लेते है। इसलिए अन्य सबका जन्मोत्सव तो ‘जन्म दिन’ के रूप में मनाया जाता है, परन्तु परमात्मा शिव के जन्म-दिन को ‘शिवरात्रि’ (Birth-night) ही कहा जाता है।
अत: जो कालिमा अथवा अन्धकार होता है वह अज्ञानान्धकार अथवा विषय-विकारों की रात्रि का घोतक होता है और ज्ञान - सूर्य की तरह होता है। शिव के प्रकट होने से सृष्टि से अज्ञानान्धकार तथा विकारों का नाश हो जाता है। जब इस प्रकार अवतरित होकर परमपिता परमात्मा शिव ज्ञान-प्रकाश देते है तो कुछ ही समय में ज्ञान का प्रभाव सूर्य के प्रकाश की तरह सारे विश्व में फ़ैल जाता है।
कलियुग तथा तमोगुण के स्थान पर संसार में सतयुग और सतोगुण कि स्थापना हो जाती है और अज्ञान-अन्धकार का तथा विकारों का विनाश हो जाता है। सारे कल्प में परमपिता परमात्मा शिव के एक अलौकिक जन्म से थोड़े ही समय में यह सृष्टि वेश्यालय से बदल कर शिवालय बन जाती है। नर को श्री नारायण पद तथा नारी को श्री लक्ष्मी पद की प्राप्ति हो जाती है, इसलिए शिवरात्रि हीरे तुल्य है। +