Lord Shiva Chalisa
                      
                 
                     दोहा
                               जय गणेश गिरिजासुवन, मंगल मूल सुजान
                                कहत अयोध्यादास तुम, देउ अभय वरदान
 
                                
चौपाई
                                जय शिव शङ्कर औढरदानी। 
                                जय गिरितनया मातु भवानी॥
                                
                                सर्वोत्तम योगी योगेश्वर। 
                                सर्वलोक-ईश्वर-परमेश्वर॥
                                
                                सब उर प्रेरक सर्वनियन्ता। 
                                उपद्रष्टा भर्ता अनुमन्ता॥
                                
                                पराशक्ति - पति अखिल विश्वपति। 
                                परब्रह्म परधाम परमगति॥
                                
                                सर्वातीत अनन्य सर्वगत। 
                                निजस्वरूप महिमामें स्थितरत॥
                                
                                अंगभूति - भूषित श्मशानचर। 
                                भुजंगभूषण चन्द्रमुकुटधर॥
                                
                                वृषवाहन नंदीगणनायक। 
                                अखिल विश्व के भाग्य-विधायक॥
                                
                                व्याघ्रचर्म परिधान मनोहर। 
                                रीछचर्म ओढे गिरिजावर॥
                                
                                कर त्रिशूल डमरूवर राजत। 
                                अभय वरद मुद्रा शुभ साजत॥
                                
                                तनु कर्पूर-गोर उज्ज्वलतम। 
                                पिंगल जटाजूट सिर उत्तम॥
                                
                                भाल त्रिपुण्ड्र मुण्डमालाधर। 
                                गल रुद्राक्ष-माल शोभाकर॥
                                
                                विधि-हरि-रुद्र त्रिविध वपुधारी। 
                                बने सृजन-पालन-लयकारी॥
                                
                                तुम हो नित्य दया के सागर। 
                                आशुतोष आनन्द-उजागर॥
                                
                                अति दयालु भोले भण्डारी। 
                                अग-जग सबके मंगलकारी॥
                                
                                सती-पार्वती के प्राणेश्वर। 
                                स्कन्द-गणेश-जनक शिव सुखकर॥
                                
                                हरि-हर एक रूप गुणशीला। 
                                करत स्वामि-सेवक की लीला॥
                                
                                रहते दोउ पूजत पुजवावत। 
                                पूजा-पद्धति सबन्हि सिखावत॥
                                
                                मारुति बन हरि-सेवा कीन्ही। 
                                रामेश्वर बन सेवा लीन्ही॥
                                
                                जग-जित घोर हलाहल पीकर। 
                                बने सदाशिव नीलकंठ वर॥
                                
                                असुरासुर शुचि वरद शुभंकर। 
                                असुरनिहन्ता प्रभु प्रलयंकर॥
                                
                                नम: शिवाय मन्त्र जपत मिटत सब क्लेश भयंकर॥
                                
                                जो नर-नारि रटत शिव-शिव नित। 
                                तिनको शिव अति करत परमहित॥
                                
                                श्रीकृष्ण तप कीन्हों भारी। 
                                ह्वै प्रसन्न वर दियो पुरारी॥
                                
                                अर्जुन संग लडे किरात बन। 
                                दियो पाशुपत-अस्त्र मुदित मन॥
                                
                                भक्तन के सब कष्ट निवारे। 
                                दे निज भक्ति सबन्हि उद्धारे॥
                                
                                शङ्खचूड जालन्धर मारे। 
                                दैत्य असंख्य प्राण हर तारे॥
                                
                                अन्धकको गणपति पद दीन्हों। 
                                शुक्र शुक्रपथ बाहर कीन्हों॥
                                
                                तेहि सजीवनि विद्या दीन्हीं। 
                                बाणासुर गणपति-गति कीन्हीं॥
                                
                                अष्टमूर्ति पंचानन चिन्मय। 
                                द्वादश ज्योतिर्लिङ्ग ज्योतिर्मय॥
                                
                                भुवन चतुर्दश व्यापक रूपा। 
                                अकथ अचिन्त्य असीम अनूपा॥
                                
                                काशी मरत जंतु अवलोकी। 
                                देत मुक्ति -पद करत अशोकी॥
                                
                                भक्त भगीरथ की रुचि राखी। 
                                जटा बसी गंगा सुर साखी॥
                                
                                रुरु अगस्त्य उपमन्यू ज्ञानी। 
                                ऋषि दधीचि आदिक विज्ञानी॥
                                
                                शिवरहस्य शिवज्ञान प्रचारक। 
                                शिवहिं परम प्रिय लोकोद्धारक॥
                                
                                इनके शुभ सुमिरनतें शंकर। 
                                देत मुदित ह्वै अति दुर्लभ वर॥
                                
                                अति उदार करुणावरुणालय। 
                                हरण दैन्य-दारिद्रय-दु:ख-भय॥
                                
                                तुम्हरो भजन परम हितकारी। 
                                विप्र शूद्र सब ही अधिकारी॥
                                
                                बालक वृद्ध नारि-नर ध्यावहिं। 
                                ते अलभ्य शिवपद को पावहिं॥
                                
                                भेदशून्य तुम सबके स्वामी। 
                                सहज सुहृद सेवक अनुगामी॥
                                
                                जो जन शरण तुम्हारी आवत। 
                                सकल दुरित तत्काल नशावत॥
                                
                                
                                || दोहा ||
                                
                               बहन करौ तुम शीलवश, निज जनकौ सब भार।
                                गनौ न अघ, अघ-जाति कछु, सब विधि करो सँभार॥
                                
                                तुम्हरो शील स्वभाव लखि, जो न शरण तव होय।
                                तेहि सम कुटिल कुबुद्धि जन, नहिं कुभाग्य जन कोय॥
                                
                                दीन-हीन अति मलिन मति, मैं अघ-ओघ अपार।
                                कृपा-अनल प्रगटौ तुरत, करो पाप सब छार॥
                                
                                कृपा सुधा बरसाय पुनि, शीतल करो पवित्र।
                                राखो पदकमलनि सदा, हे कुपात्र के मित्र॥