भारतीय संस्कृति में शिव की आराधना का अद्भूत महत्व है। सावन मास महादेव को अत्यंत प्रिय है। दैविक, दैहिक और भौतिक दुखों को दूर करने के कारण शिव का नाम रुद्र पड़ा। इसीलिए शिव ने त्रिशूल भी धारण किया। परम पुरुष आदिदेव साकार ब्रह्म होने के कारण वे सृजन, पालन और संहार करते हैं। अभिषेक प्रिय होने के कारण श्रावण मास में रुद्राभिषेक की परम्परा है।
एक लोक आस्था के अनुसार, सावन मास में भगवान शिव ने समुद्र मंथन के समय लोक मंगल के लिए विष पान किया था। उसी समय शीतलता प्रदान करने के लिए इंद्रदेव ने वृष्टि की। इसीलिए सावन मास में महादेव का जलाभिषेक करने की परम्परा आरम्भ हुई। भगवान शिव जगत की पीड़ा और आंसू लेकर अमृत लौटाते हैं।
आज भी संस्कारों में रमे गांवों में भोले के विवाह का मंगल गाए बिना कोई विवाह पूरा नहीं होता। मत्स्य पुराण, में शिवलिंग उपासना के अलावा शिव पुराण में द्वादश ज्योतिर्लिंग वर्णित हैं। स्कन्द पुराण, अग्नि पुराण, गरुड़ पुराण और कालिका पुराण में भी शिव का व्यापक उल्लेख किया गया है।
तुलसी दास ने शिव को विश्वास और पार्वती को श्रद्धा माना। विष्णु, शिव को एक दूसरे का उपासक माना। कवि कालिदास रघुवंश का प्रारंभ शिव आराधना से करते हैं। महाभारत में शिव सर्वोच्च देवता के रूप में वर्णित है। आशुतोष का अर्थ है अतिशीघ्र संतुष्ट होने वाले भगवान शिव।
श्रावण मास में शिव आराधना का उच्च स्थान है। इस माह में शिव की पूजा, व्रत, उपवास पुराण श्रवण अत्यन्त पुण्यदायी होता है। सावन के सोमवार का शिव पूजन विशेष दिवस है। ऐसी मान्यता है कि इस दिन श्रद्धा और आस्था से की गई उपासना निष्फल नहीं होती।
जावालोपनिषद में उल्लिखित है कि रुद्राक्ष शिव के आंसू हैं। इनका तृतीय उर्ध्व नेत्र व बाईं आंखों की संयुक्त शक्ति का प्रतीक है। डमरू ज्ञान का उद्गाता है। शिव का एक नाम त्रिलोचन भी है। शिव जी मृत्युन्जय हैं। इनकी पूजा मृत्यु और काल को पराजित करती है।
अयोध्या में सरयूतट पर नागेश्वरनाथ मंदिर सावन मास में भक्तों से परिपूर्ण रहता है। सोमवार के दिन शिव आराधना करने पर चंद्रमा से आने वाली तरंगें मन को शांत बनाती हैं। कांवड़ शिव पूजा का एक स्वरूप है। गंगा या पवित्र नदियों सरयू आदि से जल भरकर शिवलिंग पर अभिषेक करने से परात्पर शिव के साथ विहार होता है। कांवड़ से ज्ञान की उच्चता का प्रतिपादन होता है।
यजुर्वेद में परमात्मा को शिव शंभु और शंकर नाम से नमन किया गया है। शिव शब्द लघु है इसका अर्थ इसे गंभीर बना देता है। शंभु का भावार्थ है मंगलदायक। शंकर का तात्पर्य है आनंद का स्नोत। शिव पुराण में शिव के पंचानन स्वरूप का ध्यान बताया गया है। ये पांच मुख - ईशान, तत्पुरुष, अघोर, वामदेव और सद्योजात है।
ईशान शिव का उर्ध्वमुख है, वर्ण दुग्ध जैसा है। ईशान पंचमूर्ति महादेव की क्रीड़ा मूर्ति हैं। पूर्व मुख का नाम तत्पुरुष है। वायुतत्व के अधिपति तत्पुरुष तपोमूर्ति हैं। भगवान सदाशिव के दक्षिणी मुख को अघोर कहा जाता है। यह शिव की संहारकारी शक्ति भक्तों का संकट दूर करती है। उत्तरी मुख वामदेव जलतत्व के अधिपति कृष्ण वर्ण के हैं। शंकर के पश्चिमी मुख को सद्योजात कहा जाता है जो श्वेत वर्ण है।
पंच भूतों के अधिपति होने के कारण शिव भूतनाथ कहे जाते हैं। श्रुतियां शिव को सभी प्राणियों का विश्राम स्थान कहती हैं। शिव काल के प्रवर्तक और नियंत्रक होने से महाकाल हैं। काल के पांच अंग तिथि, वार नक्षत्र, योग और करण शिव के अवयव हैं। महादेव की अर्चना करने के लिए सर्व प्रथम स्वयं को शिव के अनुरूप बनाना पड़ता है। शिव की उपासना तभी सार्थक होती है जब भक्त शिव की भांति परोपकारी, त्यागी, सहिष्णु, सहनशील और साधनायुक्त होकर करते है।
शिव साधना में कर्मकांड की जटिलता नहीं बल्कि भावना की प्रधानता है। जिस तरह हलाहल का पान करके शिव ने नीलकंठ बनकर देवताओं को संकट से बचाया, उसी भांति उनके भक्तों को भी उनका अनुसरण करते हुए अपने कर्तव्यों का पालन करना चाहिए।
शिवतत्व को जीवन में उतार लेना ही शिवत्व प्राप्त करना है। यही शिव होना भी है। भगवान शिव दूसरों को सुख देने के लिए गरल पीने से पीछे नहीं हटे। शिव का सच्चा उपासक बनने के लिए उनके गुणों को स्वयं को उतारने पर शिव बनना होता है। सावन मास शिवार्चन के साथ शिव की राह पर चलने का श्रेष्ठ समय है।
उज्जैन में शिप्रा नदी के किनारे स्थित महाकालेश्वर मंदिर द्वादश ज्योतिर्लिंगों में से एक है। यहां पर सावन के प्रत्येक सोमवार को भाद्रपद माह के कृष्ण पक्ष तक महाकाल की सवारी निकलती है। सावन में शिव बनने की आस्था चेतना जगाती है। सावन में शिवतत्व की विलक्षण परंपरा है।