मानव सभ्यता में आध्यात्मिक जिज्ञासा और प्रेरणा का कारण और परिणाम दोनों ही शिव हैं। शिव अनंत हैं। वे सार्वभौमिक और सार्वकालिक भी हैं। वे किसी एक सभ्यता के द्योतक नहीं हैं। वे तो सभ्यताओं के नियामक हैं। शिव स्वयं में एक संस्कृति हैं। एक ऐसी अनवरत धारा, जो अध्यात्म और दैविक शक्तियों के प्रति मानवीय जिज्ञासाओं का प्रतिनिधित्व करती है।
शिव की सार्वभौमिकता को जानना हो, तो विश्व की अनेक सभ्यताओं के प्राचीन अध्यायों का अवलोकन करना होगा। इंका, माया, बेबीलोन और मेसोपोटामिया की सभ्यता में पितृ शक्ति की उपासना के प्रतीक मिले हैं। ये प्रतीक ही शिव आस्था की वैश्रि्वकता को सिद्ध करते हैं। जहां वेदों में शिव रुद्र हैं, वहीं पुराण में वे अर्धनारीश्वर हो जाते हैं।
यह एक गंभीर आध्यात्मिक चिंतन है। जहां शिव भारत को वैश्रि्वक आध्यात्मिक धारा से जोड़ते हैं, वहीं सिंधु सरस्वती सभ्यता और वैदिक सभ्यता के मध्य सेतु का काम भी करते हैं। यह प्रमाणित हो चुका है कि आमतौर पर वैदिक समाज में शिव संस्कृति का व्यापक प्रभाव था। सिंधु सभ्यता के अवशेष में अनेक शिवलिंग प्राप्त हुए हैं। यहां एकमुखी, त्रिमुखी और चतुर्मुखी शिवलिंग भी प्राप्त हुए हैं।
प्रजापति कश्यप जिन एकादश रुद्रों की परिकल्पना करते हैं, उसमें एक रुद्र शिव हैं। वर्तमान सनातन धर्म में रुद्र के शिव रूप की ही प्रतिष्ठा-आराधना की जाती है। उत्तराखंड में पंच केदार शिव स्थापित हैं। ये रुद्र के ही रूप हैं। केदारनाथ, तुंगनाथ, केदारनाथ, महामहेश्वर और कमलेश्वर वैदिककालीन शिव संस्कृति के प्रतीक हैं।
शिव एक दार्शनिक तत्व हैं। वे सृष्टि के प्रत्येक नियमों और स्वरूप का प्रतिनिधित्व करते हैं। जब भारतीय संस्कृति पूर्वी एशिया के अनेक देशों तक पहुंची, तो शिव संस्कृति ने वहां भी आध्यात्मिक क्रांति पैदा कर दी। जहां वे अनंत संस्कृति प्रवाह शक्ति हैं, वहीं परस्पर विरोधी तत्वों का समन्वय रूप भी हैं। शिव अखंड हैं।
शिव दिव्य विभूति हैं। शिव ज्योति हैं। शिव सच्चिदानंद हैं। मानवीय आध्यात्मिक जिज्ञासा का सार्वकालिक निदान शिव हैं।