भगवान शिव का यह प्रसिद्ध ज्योतिलिंग श्रीनागेश्वर गुजरात प्रांत में द्वारका पुरी से लगभग 17 मील दूर स्थित है। श्रीनागेश्वर के संबंध में पुराणों में दी हुई यह कथा काफी प्रचलित है -
सुप्रिय नामक एक बड़ा धर्मात्मा और सदाचारी व्यापारी भगवान शिव का अनन्य भक्त था। वह निरंतर उनके आराधन, पूजन और ध्यान में लीन रहता था। अपने सारे कार्य वह भगवान शिव को अर्पण करके करता था। मन, वचन, कर्म से वह पूर्णत: शिवार्चन में ही तल्लीन रहता था।
उसकी इस शिव भक्ति से दारुक नामक एक राक्षस बहुत क्रुद्ध रहता था। दारुक राक्षस को सुप्रिय द्वारा की जाने वाली भगवान शिव की यह पूजा किसी प्रकार भी अच्छी नहीं लगती थी। वह निरंतर इस बात का प्रयत्न किया करता था कि सुप्रिय की पूजा-अर्चना में विघ्न पहुंचे।
अपने इसी कुटिल विचार के साथ एक बार सुप्रिय नौका पर सवार होकर कहीं जा रहा था, तब उस दुष्ट राक्षस ने उपयुक्त अवसर देख कर उस नौका पर आक्रमण कर दिया। दारुक राक्षस ने नौका में सवार सभी यात्रियों को पकड़ कर अपनी राजधानी में ले जाकर कैद कर दिया।
सुप्रिय कारागार में भी अपने नित्य नियम के अनुसार, भगवान शिव की पूजा-आराधना करने लगा। अन्य बंदी यात्रियों को भी वह शिव भक्ति की प्रेरणा देने लगा। दारुक ने जब अपने सेवकों से सुप्रिय के विषय में यह समाचार सुना तब वह अत्यंत क्रुद्ध होकर उस कारागार में आ पहुंचा। सुप्रिय उस समय भगवान शिव के चरणों में ध्यान लगाए हुए दोनों आंखें बंद किए बैठा था।
राक्षस ने उसकी यह मुद्रा देख कर अत्यंत भीषण स्वर में उस पर क्रोधित होते हुए कहा, ‘‘अरे दुष्ट, तू आंखें बंद कर इस समय यहां कौन से उपद्रव और षड्यंत्र करने की बातें सोच रहा है?’’ उसके यह कहने पर भी धर्मात्मा शिव भक्त सुप्रिय की समाधि भंग नहीं हुई। अब तो वह महाभयानक राक्षस क्रोध से एकदम बावला हो उठा। उसने तत्काल अपने अनुचर राक्षसों को सुप्रिय तथा अन्य सभी बंदियों को मार डालने का आदेश दे दिया।
सुप्रिय उसके इस आदेश से जरा भी विचलित और भयभीत नहीं हुआ। वह एक निष्ठ भाव और एकाग्र मन से अपनी व अन्य बंदियों की मुक्ति के लिए भगवान शिव को पुकारने लगा। उसे पूर्ण विश्वास था कि मेरे आराध्य भगवान शिव इस विपत्ति से मुझे अवश्य ही छुटकारा दिलाएंगे।
उसकी प्रार्थना सुन कर भगवान शंकर तत्क्षण उस कारागार में एक ऊंचे स्थान में एक चमकते हुए सिंहासन पर स्थित होकर ज्योतिलिंग के रूप में प्रकट हो गए। उन्होंने इस प्रकार सुप्रिय को दर्शन देकर उसे अपना पाशुपत अस्त्र भी प्रदान किया। उस अस्त्र से राक्षस दारुक तथा उसके सहायकों का वध करके सुप्रिय शिव धाम को चला गया।
भगवान शिव के आदेशानुसार ही इस ज्योतिलिंग का नाम नागेश्वर पड़ा।
एतद् य: शृणुयान्नित्यं नागेशोद्भवमादरात्।
सर्वान् कामानियाद् धीमान् महापातकशानम्।।
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