हिंदू धर्म में शिव के बारे में अनेक प्रकार की परिकल्पनाएं मिलती हैं। एक रूप वह है, जिस में पूरी सृष्टि उन्हीं में समाहित है। नीला आकाश उनका ललाट है और पृथ्वी उदर। दूसरा रूप वह है, जिसमें वे तीन आदि देवों में से एक हैं -ब्रह्मा, विष्णु और महेश। इसमें वे सृजन और विनाश के देवता माने गए हैं। लेकिन उनका एक रूप मानवीय भी है, जिसमें वे औघड़ और सिद्ध योगी हैं। इसलिए कहा जा सकता है कि शिव ही सार्वभौमिक है, सत्य है।
उनके इस योगी रूप में कोमलता और कठोरता के दो छोर दिखाई देते हैं। वे नाद और नृत्य के स्वामी हैं। उन्होंने मानवीय सभ्यता को धर्म का बोध दिया है। उन्होंने मनुष्य को अंतर जगत में ईश्वर की प्राप्ति का रास्ता दिखाया है। वह प्राप्ति का नहीं, संप्राप्ति का रास्ता है।
ऋग्वेदीय युग में छंद थे, किंतु मनुष्य को राग-रागिनियों की पहचान नहीं थी। केवल छंदों के रहने से उन मंत्रों को गाया नहीं जा सकता था। अभी सप्त सुरों से उसका परिचय नहीं हुआ था। भगवान शिव ने सात जंतुओं की ध्वनियों को आधार बना कर सुर सप्तक की रचना की। शिव ने केवल गीत या संगीत को ही नियमबद्ध नहीं बनाया। ध्वनि का विज्ञान, स्वर के विज्ञान पर निर्भर है... मनुष्य के श्वास-प्रश्वास पर निर्भर है। इसी आधार पर शिव ने छंदों को संगीतमय और संगीत को मुद्रामय बनाया। छंदों के साथ उन्होंने नृत्य की संगति बैठाई और उसके साथ मुद्राओं को जोड़ा।
सिर्फ ढाक पर लकड़ी का ठोका पड़ने से ही वह वाद्य नहीं कहा जा सकता, वहां भी छंदों और सुरों के सप्तक की संयोजन की आवश्यकता होती है। इससे मुद्राओं को जोड़ना होता है। आधुनिक शरीर विज्ञान इस तथ्य की पुष्टि करता है कि विभिन्न मुद्राएं मनुष्य के शरीर की विभिन्न ग्रंथियों (ग्लैंडस) को प्रभावित करती हैं और उससे मन की गति प्रभावित होती है।
आदिकाल में मनुष्य समाज में विवाह-प्रथा का जन्म नहीं हुआ था। विवाह-प्रथा न होने के कारण ही मातृगत कुल व्यवस्था थी, क्योंकि माता को तो पहचाना जाता था, पिता को नहीं पहचाना जा सकता था। जो लोग शिव के योगी रूप की पूजा करते हैं, उनका यह भी मानना है कि उस काल की मानवीय सभ्यता को शिव ने ही विवाह की व्यवस्था दी, जिसका अर्थ था अपने दांपत्य को कुछ विशेष नियमों के अनुसार चलाना।
शैव विवाह का आशय यह है कि पात्र-पात्री अपने उपर सारा दायित्व लेकर ही विवाह करें और उसमें जाति-कुल को लेकर कोई विचार नहीं किया जाए। यह स्त्री-पुरुष को अपनी इच्छा और अपने विवेक से जीवन साथी चुनने तथा धर्म के अनुसार, उस संबंध का निर्वाह करने का मंत्र देता है।
शिव की उपासना के साथ तंत्र साधना भी जुड़ी हुई है। उनके कुछ अनुयायी मानते हैं कि योग के इस तंत्र पक्ष के आदि जनक भी वही थे। उन्होंने योग तंत्र के व्यावहारिक पक्ष को नियमबद्ध किया। आदर्श पालन में शिव थे कठोर, अति कठोर। किंतु व्यवहार में थे अत्यंत ही कोमल। एक ही व्यक्ति में कठोरता और कोमलता का इतना सुंदर मेल लोगों ने उससे पहले नहीं देखा था। वे अर्धनारीश्वर भी थे और तांडव भी कर सकते थे।
इसीलिए समाज ने अपनी जो धार्मिक परंपराएं विकसित कीं, उनमें शिव की श्रेष्ठता हमेशा स्वीकार की गई। उनकी सरलता और कोमलता लोक जीवन में एक बिंब बन कर उभरी। इसीलिए शांत और सुशील व्यक्ति को देख कर लोग आज भी बोल पड़ते हैं, वे तो जनाब भोले शंकर हैं, औघड़ दानी हैं।
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