उत्तरी भारत का सुप्रसिद्ध धार्मिक स्थल द्रोण शिव मंदिर, शिवबाड़ी ऊना मुख्यालय से लगभग तीस कि.मी. दूर गगरेट ब्लाक में स्थित है। हिन्दू आस्था के प्रतीक द्रोण शिव मंदिर मे हर वर्ष बैसाखी के बाद आने वाले दूसरे शनिवार को भव्य मेले का आयोजन किया जाता है, जिसमे देश के भिन्न-भिन्न राज्यों से आये श्रद्धालु भगवान् शिव के दर्शन कर भोलेनाथ का आशीर्वाद प्राप्त करते है।
मान्यता के अनुसार, बैसाखी के दूसरे शनिवार शिव स्वयं किसी न किसी रूप में मंदिर परिसर में अवश्य आते हैं। इस अवसर पर देश के अलग अलग राज्यों से आये भक्तों द्वारा भगवान शिव के चरणों मे शीश निवाया जाता है और मनोतियां मांगीं जाती है।
दन्त कथा के अनुसार, पुराने समय में यहां फैले घने जंगल में गुरु द्रोणाचार्य अपने परिवार के साथ रहा करते थे। यहाँ गुरु द्रोणाचार्य के साथ उनकी पुत्री याती भी रहती थी। गुरु द्रोणाचार्य प्रतिदिन शिव अराधना करने के लिए अपनी दिव्य शक्तियों से कैलाश पर जाते थे। जब वह कैलाश पर्वत पर जाते थे तो उनके साथ उनकी पुत्री याती भी जाने की जिद करती थी, लेकिन द्रोणाचार्य उसे वहीं खेलने को कहकर स्वयं कैलाश पर अकेले ही चले जाते थे।
जब गुरु कैलाश पर्वत पर जाते तो पीछे से एक बालक उनकी पुत्री याती के साथ प्रतिदिन खेलने आता था। एक दिन याती ने अपने पिता को बताया कि आपके आने से पहले वह चला जाता है। गुरु द्रोणाचार्य के मन में उस दिव्य बालक को देखने की जिज्ञासा पैदा हुई। वह एक दिन बीच रास्ते से ही वापस शिवबाड़ी में बालक को देखने आ गए। गुरु द्रोणाचार्य ने दिव्य नेत्रों से बालक रूपी भगवान शिव को तुरंत पहचान लिया।
तभी गुरु ने नतमस्तक होकर भोलेनाथ को कहा कि हे भगवान! मैं तो प्रतिदिन आपकी पूजा-अर्चना करने कैलाश पर जाता हूँ, लेकिन आप तो स्वयं यहां आते हैं। तब भोलेनाथ ने कहा कि जो भी मुझे सच्चे मन से याद करता है मैं स्वयं उसके पास आ जाता हूँ। तब गुरु द्रोणाचार्य एवं उनकी पुत्री याति ने उन्हें वहीं रहने की प्रार्थना की।
शिव ने प्रसन्न होकर स्वयं को पिंडी के रूप में शिवबाड़ी में स्थापित कर लिया और कहा कि बैसाखी से दूसरे शनिवार को वह स्वयं किसी न किसी रूप में प्रतिवर्ष यहां आएंगे।
द्रोण शिव मंदिर घने जंगल के बीचो बीच स्थित है तथा यह घना जंगल लगभग पांच वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ है और यह अपने आप में प्रकृति की अद्भुत रचना है। लेकिन इस जंगल की लकड़ी को घरो में इस्तेमाल करना वर्जित है इस लकड़ी का इस्तेमाल सिर्फ मंदिर धुनें में या शव को जलाने के लिए ही किया जा सकता है।
द्रोण शिव मंदिर के पुजारी की मानें तो इस जंगल की लकड़ी को घर के चूल्हे में जलाना वर्जित है। उन्होंने कहा कि इतिहास गवाह है कि जिस किसी ने भी यहां से लकड़ी अपने घर को ले जाने का प्रयास किया तो उसके साथ अनिष्ट ही हुआ।