त्रिपुर का अर्थ होता है लोभ, मोह और अहंकार। मनुष्य के भीतर इन तीन विकारों का वध करने वाले त्रिपुरारी शिव की शक्ति का पुराणों में प्रतीकात्मक वर्णन अभिभूत करने वाला है। जटाजूट में सुशोभित चंद्रमा, सिर से बहती गंगा की धार, हाथ में डमरू, नीला कंठ और तीन नेत्रों वाला दिव्य रूप किसके हृदय को आकर्षित न कर लेगा।
इस रूप में भगवान शंकर का तीसरा नेत्र ज्ञानचक्षु है। यह विवेकशीलता का प्रतीक है। इस ज्ञानचक्षु की पलकें खुलते ही काम जलकर भस्म हो जाता है। यह विवेक अपना ऋषित्व स्थिर रखते हुए दुष्टता को उन्मुक्त रूप से नहीं विचरने देता है। अंतत: उसका मद-मर्दन करके ही रहता है। वस्तुत: यह तृतीय नेत्र सृष्टा ने प्रत्येक व्यक्ति को दिया है। यदि यह तीसरा नेत्र खुल जाए, तो सामान्य बीज रूपी मनुष्य की संभावनाएं वट वृक्ष का आकार ले सकती हैं।
शिव-सा शायद ही कोई संपन्न हो, पर वे संपन्नता के किसी भी साधन का अपने लिए प्रयोग नहीं करते हैं। हलाहल (विष) को गले में रोकने से शिव जी नीलकंठ हो गए अर्थात विश्व कल्याण के लिए उन्होंने विपरीत परिस्थितियों को तो स्वीकार किया, पर व्यक्तित्व पर उसका प्रभाव नहीं पड़ने दिया। शिव को पशुपति कहा गया है। पशुत्व की परिधि में आने वाली दुर्भावनाओं और दुष्प्रवृत्तियों का नियंत्रण करना पशुपति का काम है। नर-पशु के रूप में रह रहा जीव जब कल्याणकर्ता शिव की शरण में आ जाता है, तो सहज ही उसकी पशुता का निराकरण हो जाता है।
शिव परिवार में मूषक (गणेश जी का वाहन) का शत्रु सर्प, सांप का दुश्मन मोर (कार्तिकेय जी का वाहन) और मोर एवं बैल (शिव का वाहन) का शत्रु शेर (मां पार्वती का वाहन) शामिल है। इसके बावजूद परिवार में सामंजस्य बना रहता है। शिव परिवार विपरीत परिस्थितियों में सामंजस्य बनाए रखने का अनुपम संदेश भी देता है।
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