एक समय लीलाधारी परमेश्वर शिव एकांत में बैठे थे वही सती भी विराजमान थी. आपस में वार्तालाप हो रहा था. उसी वार्तालाप के प्रसंग में भगवान शिव के मुख से सती के श्यामवर्ण को देखकर 'काली' ऐसा शब्द निकल गया. 'काली' यह शब्द सुनकर सती को महान दुःख हुआ और वे शिव से बोली - 'महाराज! आपने मेरे कृष्ण वर्ण को देखर मार्मिक वचन कहा है. इसलिए मै वहां जाउंगी, जहा मेरा नाम गौरी पड़ी .. ऐसा कहकर परम ऐश्वर्यवती सती अपनी सखियों के साथ प्रभास-तीर्थ में तपस्या करने चली गई. वहां 'गौरिश्वर ' नामक लिंगको संस्थापित कर विधिवत पूजा और दिन-रात एक पैरपर खड़ी होकर कठिन तपस्या करने लगी. ज्यों-ज्यों तप बढ़ता जाता, त्यों-त्यों उनका वर्ण गौर होता जाता. इस प्रकार धीरे-धीरे उनके अंग पूर्णरूप से गौर हो गये.
तदनन्तर भगवान चंद्रमौली वहां प्रकट हुए और उन्हों ने सती को बड़े आदर से 'गौरी' इस नाम से सम्बोधित
करके कहा 'प्रिये! अब तुम उठो और अपने मंदिर को चलो. हे कल्याणी! अभीष्ट वर मांगो, तुम्हारे लिए कुछ भी अदेय नहीं है, तुम्हारी तपस्या से मै परम प्रसन्न हु..
तब सती ने हाथ जोड़कर कहा - हे महाराज! आपके चरणों की दया से मुझे किसी बात की कमी नहीं है. मुझे अपने लिए कुछ नहीं चाहिए. परन्तु यह प्रार्थना अवश्य करुँगी की जो नर या नारी इस गौरिश्वर शिव का दर्शन करे, वे सात जन्मतक सौभाग्य - समृद्धि से पूर्ण हो जाए और उनके वंश में किसी को भी दारिद्र्य तथा दौर्भाग्य का भोग ना करना पड़े. मेरे संथापित इस लिंगकी पूजा करने से परमपद की प्राप्ति हो. गौरी की इस प्रार्थना को श्री महादेव जी ने परम हर्ष के साथ स्वीकार कर लिए और उन्हें लेकर वे अपने कैलाश को पधारे