चिदंबरम मंदिर

State: Tamil Nadu
Country: India
चिदंबरम मंदिर (तमिल: சிதம்பரம் கோயில்) भगवान् शिव को समर्पित एक हिन्दू मंदिर है जो मंदिरों की नगरी चिदंबरम के मध्य में, पौंडीचेरी से दक्षिण की ओर 78 किलोमीटर की दूरी पर और कुड्डालोर जिले के उत्तर की ओर 60 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है, कुड्डालोर जिला भारत के दक्षिणपूर्वीय राज्य तमिलनाडु का पूर्व-मध्य भाग है. संगम क्लासिक्स विडूवेल्वीडुगु पेरुमटक्कन के पारंपरिक विश्वकर्माओं के एक सम्माननीय खानदान की ओर संकेत करता है जो मंदिर पुनर्निर्माण के प्रमुख वास्तुकार थे. मंदिर के इतिहास में कई जीर्णोद्धार हुए हैं, विशेषतः पल्लव/चोल शासकों के द्वारा प्राचीन एवम पूर्व मध्ययुगीन काल के दौरान.
हिन्दू साहित्य में, चिदंबरम पांच पवित्र शिव मंदिरों में से एक है, इन पांच पवित्र मंदिरों में से प्रत्येक मंदिर पांच प्राकृतिक तत्वों में से किसी एक का प्रतिनिधित्व करता है; चिदंबरम आकाश (ऐथर) का प्रतिनिधित्व करता है. इस श्रेणी में आने वाले अन्य चार मंदिर हैं: थिरुवनाईकवल जम्बुकेस्वरा (जल), कांची एकाम्बरेस्वरा (पृथ्वी), थिरुवन्नामलाई अरुणाचलेस्वरा (अग्नि) और कालहस्ती नाथर (वायु).
 
  • मंदिर
यह मंदिर का भवन है जो शहर के मध्य में स्थित है और 40 एकड़s (1,60,000 मी²) के क्षेत्र में फैला हुआ है. यह भगवान् शिव नटराज और भगवन गोविन्दराज पेरुमल को समर्पित एक प्राचीन और ऐतिहासिक मंदिर है, यह उन कुछ मंदिरों में से एक है जहां शैव व वैष्णव दोनों देवता एक ही स्थान पर प्रतिष्ठित हैं.[1]
शैव मत के अनुयायियों या शैव मतावलंबियों के लिए, शब्द कॉइल का अर्थ होता है चिदंबरम. इसी प्रकार, वैष्णव मत का पालन करने वालों के लिए इसका अर्थ होता है श्रीरंगम या थिरुवरंगम .
 
  • शब्द का उद्गम 
शब्द चिदंबरम चित से लिया गया मालूम होता है, जिसका अर्थ होता है "चेतना", और अम्बरम , का अर्थ होता है "आकाश" (आकासम या आक्यम से लिया गया); यह चिदाकासम की ओर संकेत करता है, चेतना का आकाश, वेदों और धर्म ग्रंथों के अनुसार इसे प्राप्त करना ही अंतिम उद्देश्य होना चाहिए.
एक अन्य सिद्दांत यह है कि इसे चित + अम्बलम से लिया गया है. अम्बलम का अर्थ होता है, कला प्रदर्शन के लिए एक "मंच". चिदाकासम परम आनंद या आनंद की एक अवस्था है और भगवान् नटराजर इस परम आनंद या आनंद नतनम के प्रतीक माने जाते हैं. शैव मत वालों क यह विश्वास है कि चिदंबरम में एक बार दर्शन करने से वह मुक्त हो जायेंगे.
एक अन्य सिद्धांत के अनुसार यह नाम चित्राम्बलम से लिया गया है, जिसमे चिथु का अर्थ है "भगवानों का नृत्य या क्रीड़ा" और अम्बलम का अर्थ है "मंच".
 
  • विशेष आकर्षण 
मंदिर की एक अनूठी विशेषता आभूषणों से युक्त नटराज की छवि है. यह भगवान् शिव को भरतनाट्यम नृत्य के देवता के रूप में प्रस्तुत करती है और यह उन कुछ मंदिरों में से एक है जहां शिव को प्राचीन लिंगम के स्थान पर मानवरूपी मूर्ति के रूप में प्रतिष्ठित किया गया है. देवता नटराज का ब्रह्मांडीय नृत्य भगवन शिव द्वारा अनवरत न्रह्मांड की गति का प्रतीक है. मंदिर में पांच आंगन हैं.
अरगालुर उदय इरर तेवन पोंपराप्पिननम (उर्फ़ वन्कोवरैय्यन) ने 1213 एडी (AD) के आसपास मंदिर का पुनर्निर्माण करवाया था. इन्ही बन प्रमुख ने तिरुवन्नामलाई का मंदिर भी बनवाया था.
पारंपरिक रूप से मंदिर का प्रशासन एक अपने ही समूह में विवाह करने वाले दिक्षितर नाम से जाने जाने वाले शैव ब्रह्मण समुदाय द्वारा देखा जाता है, जो मंदिर के पुजारी के रूप में भी पदभार संभालते हैं.
यह तमिलनाडु सरकार और दिक्षितर समुदाय के बीच लम्बे समय से चली आ रही कानूनी लड़ाई की पराकाष्ठा थी. इसकी शुरुआत तब हुई जब सरकार ने गैर-दिक्षितर लोगों को भी 'पवित्र गर्भगृह' (संस्कृत: गर्भगृह) में भगवान् शिव की थेवरम स्तुति गाने की अनुमति दे दी, जिस पर दिक्षितर समुदाय ने आपत्ति की और यह दावा किया कि उन्हें नटराज के गर्भगृह में पूजा करने का विशेषधिकार प्राप्त है.
 
 
चिदंबरम मंदिर की पौराणिक कथा और इसका महत्व 
 
  • पौराणिक कथा 
चिदंबरम की कथा भगवान शिव की थिलाई वनम में घूमने की पौराणिक कथा के साथ प्रारंभ होती है, (वनम का अर्थ है जंगल और थिलाई वृक्ष - वानस्पतिक नाम एक्सोकोरिया अगलोचा (Exocoeria agallocha) , वायुशिफ वृक्षों की एक प्रजाति - जो वर्तमान में चिदंबरम के निकट पिचावरम के आर्द्र प्रदेश में पायी जाती है. मंदिर की प्रतिमाओं में उन थिलाई वृक्षों का चित्रण है जो दूसरी शताब्दी सीइ के काल के हैं).
  • अज्ञानता का दमन
थिलाई के जंगलों में साधुओं या 'ऋषियों' का एक समूह रहता था जो तिलिस्म की शक्ति में विश्वास रखता था और यह मानता था कि संस्कारों और 'मन्त्रों' या जादुई शब्दों के द्वारा देवता को अपने वश किया जा सकता है. भगवान जंगल में एक अलौकिक सुन्दरता व आभा के साथ भ्रमण करते हैं, वह इस समय एक 'पित्चातंदर' के रूप में होते हैं, अर्थात एक साधारण भिक्षु जो भिक्षा मांगता है. उनके पीछे पीछे उनकी आकर्षक आकृति और सहचरी भी चलती हैं जो मोहिनी रूप में भगवान विष्णु हैं. ऋषिगण और उनकी पत्नियां मोहक भिक्षुक और उसकी पत्नी की सुन्दरता व आभा पर मोहित हो जाती हैं.
अपनी पत्नियों को इस प्रकार मोहित देखकर, ऋषिगण क्रोधित हो जाते हैं और जादुई संस्कारों के आह्वान द्वारा अनेकों 'सर्पों' (संस्कृत: नाग) को पैदा कर देते हैं. भिक्षुक के रूप में भ्रमण करने वाले भगवान सर्पों को उठा लेते हैं और उन्हें आभूषण के रूप में अपने गले, आभारहित शिखा और कमर पर धारण कर लेते हैं. और भी अधिक क्रोधित हो जाने पर, ऋषिगण आह्वान कर के एक भयानक बाघ को पैदा कर देते हैं, जिसकी खाल निकालकर भगवान चादर के रूप में अपनी कमर पर बांध लेते हैं.
पूरी तरह से हतोत्साहित हो जाने पर ऋषिगण अपनी सभी आध्यात्मिक शक्तियों को एकत्र करके एक शक्तिशाली राक्षस मुयालकन का आह्वान करते हैं - जो पूर्ण अज्ञानता और अभिमान का प्रतीक होता है. भगवान एक सज्जनातापूर्ण मुस्कान के साथ उस राक्षस की पीठ पर चढ़ जाते हैं, उसे हिल पाने में असमर्थ कर देते हैं और उसकी पीठ पर आनंद तान्डव (शाश्वत आनंद का नृत्य) करते हुए अपने वास्तविक रूप का प्रदर्शन करते हैं. ऐसा देखकर ऋषिगण यह अनुभव करते हैं कि यह देवता सत्य हैं तथा जादू व संस्कारों से परे हैं और वह समर्पण कर देते हैं.
 
  • आनंद तांडव मुद्रा 
भगवान शिव की आनंद तांडव मुद्रा एक अत्यंत प्रसिद्ध मुद्रा है जो संसार में अनेकों लोगो द्वारा पहचानी जाती है (यहां तक कि अन्य धर्मों को मानाने वाले भी इसे हिंदुत्व की उपमा देते हैं). यह ब्रह्मांडीय नृत्य मुद्रा हमें यह बताती है कि एक भरतनाट्यम नर्तक/नर्तकी को किस प्रकार नृत्य करना चाहिए.
  • नटराज के पंजों के नीचे वाला राक्षस इस बात का प्रतीक है कि अज्ञानता उनके चरणों के नीचे है
  • उनके हाथ में उपस्थित अग्नि (नष्ट करने की शक्ति) इस बात की प्रतीक है कि वह बुराई को नष्ट करने वाले हैं
  • उनका उठाया हुआ हाथ इस बात का प्रतीक है कि वे ही समस्त जीवों के उद्धारक हैं.
  • उनके पीछे स्थित चक्र ब्रह्माण्ड का प्रतीक है.
  • उनके हाथ में सुशोभित डमरू जीवन की उत्पत्ति का प्रतीक है.
यह सब वे प्रमुख वस्तुएं है जिन्हें नटराज की मूर्ति और ब्रह्मांडीय नृत्य मुद्रा चित्रित करते हैं. मेलाकदाम्बुर मंदिर जो यहां से लगभग 32 किलोमीटर की दूरी पर है वहां एक दुर्लभ तांडव मुद्रा देखने को मिलती है.इस कराकौयल में, एक बैल के ऊपर नृत्य करते हुए नटराज और इसके चारों ओर खड़े हुए देवता चित्रित हैं, यह मंदिर में राखी गयी पाला कला शैली का एक नमूना है.
 
  • आनंद तांडव 
अधिशेष सर्प, जो विष्णु अवतार में भगवान की शैय्या के रूप में होता है, वह आनंद तांडव के बारे में सुन लेता है और इसे देखने व इसका आनंद प्राप्त करने के लिए अधीर होने लगता है. भगवान उसे आशीर्वाद देते हैं और उसे संकेत देते हैं कि वह 'पतंजलि' का साध्विक रूप धर ले और फिर उसे इस सूचना के साथ थिलाई वन में भेज देते हैं कि वह कुछ ही समय में वहां पर यह नृत्य करेंगे.
पतंजलि जो कि कृत काल में हिमालय में साधना कर रहे थे, वे एक अन्य संत व्यघ्रपथर / पुलिकालमुनि ( व्याघ्र / पुलि का अर्थ है "बाघ" और पथ / काल का अर्थ है "चरण" - यह इस कहानी की ओर संकेत करता है कि किस प्रकार वह संत इसलिए बाघ के सामान दृष्टि और पंजे प्राप्त कर सके जिससे कि वह भोर होने के काफी पूर्व ही वृक्षों पर चढ़ सकें और मधुमक्खियों द्वारा पुष्पों को छुए जाने से पहले ही देवता के लिए पुष्प तोड़ कर ला सकें) के साथ चले जाते हैं. ऋषि पतंजलि और उनके महान शिष्य ऋषि उपमन्यु की कहानी विष्णु पुराणं और शिव पुराणं दोनों में ही बतायी गयी है. वह थिलाई वन में घूमते हैं और शिवलिंग के रूप में भगवान शिव की पूजा करते हैं, वह भगवान जिनकी आज थिरुमूलातनेस्वरर (थिरु - श्री, मूलतानम - आदिकालीन या मूल सिद्धांत की प्रकृति में, इस्वरर - देवता) के रूप में पूजा की जाती है. पौराणिक कथाओं के अनुसार यह माना जाता है कि भगवन शिव ने इन दोनों ऋषियों के लिए अपने शाश्वत आनंद के नृत्य (आनंद तांडव) का प्रदर्शन - नटराज के रूप में तमिल माह थाई (जनवरी - फरवरी) में पूसम नक्षत्र के दिन किया.
  • महत्व
चिदंबरम का उल्लेख कई कृतियों में भी किया गया है जैसे थिलाई (योर के थिलाई वन पर आधारित जहां पर मंदिर स्थित है), पेरुम्पत्रपुलियुर या व्याघ्रपुराणं (ऋषि व्याघ्रपथर के सम्मान में).
ऐसा माना जाता है कि मंदिर ब्रह्माण्ड के कमलरूपी मध्य क्षेत्र में अवस्थित है": विराट हृदया पद्म स्थलम . वह स्थान जहां पर भगवन शिव ने अपने शाश्वत आनद नृत्य का प्रदर्शन किया था, आनंद तांडव - वह ऐसा क्षेत्र है जो "थिरुमूलातनेस्वर मंदिर" के ठीक दक्षिण में है, आज यह क्षेत्र पोंनाम्बलम / पोर्साबाई (पोन का अर्थ है स्वर्ण, अम्बलम /सबाई का अर्थ है मंच) के नाम से जाना जाता है जहां भगवन शिव अपनी नृत्य मुद्रा में विराजते हैं. इसलिए भगवान भी सभानायकर के नाम से जाने जाते हैं, जिसका अर्थ होता है मंच का देवता.
स्वर्ण छत युक्त मंच चिदंबरम मंदिर का पवित्र गर्भगृह है और यहां तीन स्वरूपों में देवता विराजते हैं:
"रूप" - भगवान नटराज के रूप में उपस्थित मानवरूपी देवता, जिन्हें सकल थिरुमेनी कहा जाता है.
"अर्ध-रूप" - चन्द्रमौलेस्वरर के स्फटिक लिंग के रूप में अर्ध मानवरूपी देवता, जिन्हें सकल निष्कला थिरुमेनी कहा जाता है.
"आकाररहित" - चिदंबरा रहस्यम में एक स्थान के रूप में, पवित्र गर्भ गृह के अन्दर एक खाली स्थान, जिसे निष्कला थिरुमेनी कहते हैं.
  • पंच बूथ स्थल 
चिदंबरम पंच बूथ स्थलों में से एक है, जहां भगवान की पूजा उनके अवतार के रूप में होती है, जैसे आकाश या आगयम ("पंच" - अर्थात पांच, बूथ - अर्थात तत्व: पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और अंतरिक्ष और "स्थल" अर्थात स्थान).
अन्य हैं:
कांचीपुरम में एकम्बरेस्वरर मंदिर, जहां भगवान की पूजा उनके पृथ्वी रूप में की जाती है
तिरुचिरापल्ली, थिरुवनाईकवल में जम्बुकेस्वरर मंदिर, जहां भगवान की पूजा उनके जल रूप में की जाती है
तिरुवन्नामलाई में अन्नामलाइयर मंदिर, जहां भगवान की पूजा अग्नि रूप में की जाती है
श्रीकलाहस्थी में कलाहस्ती मंदिर, जहां भगवान की पूजा उनके वायु रूप में की जाती है
चिदंबरम उन पांच स्थलों में से भी एक है जहां के लिए यह कहा जाता है कि भगवान शिव ने इन स्थानों पर नृत्य किया था और इन सभी स्थलों पर मंच / सभाएं हैं. चिदंबरम के अतिरिक्त वह स्थान जहां पोर सभई है, अन्य थिरुवालान्गादु में रतिना सभई (रथिनम - मानिक / लाल), कोर्ताल्लम में चित्र सभई (चित्र - कलाकारी), मदुरई मीनाक्षी अम्मन मंदिर में रजत सभई या वेल्ली अम्बलम (रजत / वेल्ली -चांदी) और तिरुनेलवेली में नेल्लैअप्पर मंदिर में थामिरा सभई (थामिरम - तांबा).
 
  • गोपुरम 
मंदिर में कुल 9 द्वार हैं जिनमे से 4 पर ऊंचे पगोडा या गोपुरम बने हुए हैं प्रत्येक गोपुरम में पूर्व, दक्षिण, पश्चिम और उत्तर की ओर 7 स्तर हैं. पूर्वीय पगोडा में भारतीय नृत्य शैली - भरतनाट्यम की संपूर्ण 108 मुद्रायें (कमम्स ) अंकित हैं.
 
  • पांच सभाएं 
यह 5 सभाएं या मंच या हॉल हैं:
चित सभई -पवित्र गर्भगृह है जहां भगवान नटराज और उनकी सहचरी देवी शिवाग्मासुन्दरी रहती हैं.
कनक सभई - यह चितसभई के ठीक सामने है, जहां से दैनिक संस्कार सम्पादित किये जाते हैं.
नृत्य सभई या नाट्य सभई - यह मंदिर ध्वजा के खम्भे (या कोडी मारम या ध्वजा स्तंभम ) के दक्षिण की ओर है, जहां मान्यता के अनुसार भगवान ने देवी काली के साथ नृत्य किया था - शक्ति का मूर्तरूप और उन्हों अपनी प्रतिष्ठा भी स्थापित कर दी थी.
राजा सभई या 1000 स्तंभों वाला हॉल-जो हज़ार खम्भों से युक्त कमल या सहस्रराम नामक यौगिक चक्र का प्रतीक है (जो योग में सर के प्रमुख बिंदु पर स्थित एक 'चक्र' होता है और यही वह स्थान होता है जहां आत्मा का परमात्मा से मिलन होता है. इस चक्र को 1000 पंखुरियों वाले कमल के रूप में प्रस्तुत किया जाता है. ऐसा कहा जाता है कि सहस्र चक्र पर ध्यान लगाने से परमसत्ता से मिलन की अवस्था को प्राप्त किया जा सकता है और यह यौगिक क्रियाओं का सर्वोच्च बिंदु माना जाता है)
देव सभई -जहां पंच मूर्तियां विराजमान हैं (पंच - पांच, मूर्तियां - देवता, इन देवताओं के नाम हैं भगवान गणेश - विघ्नहर्ता, भगवान सोमास्कंद, एक रूप जिसमे भगवान अपनी आभा और सहचरी के साथ बैठी हुई मुद्रा में हैं, भगवान की सहचरी सिवनंदा नायकी , भगवान मुरुगा और भगवान चंडीकेस्वरर - भगवान के भक्तों के प्रमुख).
  • मंदिर की कलाकारी का महत्व 
मंदिर का खाका और वास्तुकला दार्शनिक अर्थों से परिपूर्ण है.
पांच में से तीन पंचबूथस्थल मंदिर, जोकि कालहस्ती, कांचीपुरम और चिदंबरम में हैं वह सभी ठीक 79'43" के पूर्वीय देशांतर पर एक सीध में हैं - जो वास्तव में प्रौद्योगिकी, ज्योतिषीय और भौगोलिक दृष्टि से एक चमत्कार है. अन्य दो मंदिरों में से, तिरुवनाइक्कवल इस पवित्र अक्ष पर दक्षिण की ओर 3 अंश पर और उत्तरी छोर के पश्चिम से 1 अंश पर स्थित है, जबकि तिरुवन्नामलाई लगभग बीच में है (दक्षिण की और 1.5 अंश और पश्चिम की और 0.5 अंश).
इसके 9 द्वार मनुष्य के शरीर के 9 विवरों की ओर संकेत करते हैं.
चितसभई या पोंनाम्बलम, पवित्र गर्भगृह ह्रदय का प्रतीक है जहां पर 5 सीढ़ियों द्वारा पहुंच जाता है इन्हें पंचाटचारा पदी कहते हैं - पंच अर्थात 5, अक्षरा - शाश्वत शब्दांश - "सि वा या ना मा", उच्च पूर्ववर्ती मंच से - कनकसभई. सभई तक पहुंचने का मार्ग मंच के किनारे से है (ना कि सामने से जैसा कि अधिकांश मंदिरों में होता है).
पोंनाम्बलम या पवित्र गर्भ गृह 28 स्तंभों द्वारा खड़ा है - जो 28 आगम या भगवान् शिव की पूजा के लिए निर्धारित रीतियों के प्रतीक हैं. छत 64 धरनों के समूह पर आधारित है जो कला के 64 रूपों के प्रतीक हैं इसमें अनेकों आड़ी धरनें भी हैं जो असंख्य रुधिर कोशिकाओं की ओर संकेत करती हैं. छत का निर्माण 21600 स्वर्ण टाइलों के द्वारा किया गया है जिनपर शब्द सिवायनाम लिखा है, यह 21600 श्वासों का प्रतीक है. यह स्वर्ण टाइलें 72000 स्वर्ण कीलों की सहायता से लगायी गयी हैं जो मनुष्य शरीर में उपस्थित नाड़ियों की संख्या का प्रतीक है. छत के ऊपर 9 पवित्र घड़े या कलश स्थापित किये गए हैं, जो ऊर्जा के 9 रूपों के प्रतीक हैं. (उमापति सिवम की कुंचितान्ग्रीस्थवं का सन्दर्भ लें)
सतारा में स्थित श्री नटराज मंदिर इसी मदिर की एक प्रतिकृति है.
  • चिदंबरा रहस्यम 
मुख्य लेख : 
चिदंबरम में भगवान् शिव के निराकार स्वरुप की पूजा की जाती है. ऐसा कहा जाता है कि भगवान् परम आनंद "आनंद तांडव" की अवस्था में अपनी सहचरी शक्ति या ऊर्जा जिन्हें सिवगामी कहते हैं के साथ निरंतर नृत्य कर रहे हैं. एक पर्दा इस स्थान को ढक लेता है जिसे जब डाला जाता है तो स्वर्ण 'विल्व' पत्रों की झालरें दिखायी पड़ती हैं जो भगवान की उपस्थिति का संकेत देती हैं. यह पर्दा अपने बाहरी तरफ से गहरे रंग का (अज्ञानता का प्रतीक) है और अन्दर की ओर से चमकीले लाल रंग का (बुद्धिमत्त और आनंद का प्रतीक) है.
प्रतिदिन के संस्कारों के दौरान, उस दिन के प्रमुख पुजारी स्वयं देवत्व की अवस्था में - शिवोहम भव (शिव - देवता, अपने संधि रूप में - शिवो -, अहम - मै / हम, भव - मस्तिष्क की अवस्था), परदे को हटाते हैं यह अज्ञानता को हटाने का संकेत होता है और वह स्थान तथा भगवान की उपस्थिति दिखायी पड़ने लगाती है.
इस प्रकार चिदंबरा रहस्य उस काल का प्रतिनिधित्व करता है जब एक व्यक्ति, जो पूर्णतः समर्पित हो, भगवान को हस्तक्षेप और अज्ञानता को हटाने की अनुमति दे देता है, यहां तक कि तब हम उनकी उपस्थिति और आनंद को 'देख कर अनुभव' कर पाते हैं.
  • उत्पत्ति 
दक्षिण के अधिकांश मंदिर 'सजीव' समाधियां हैं, कहने का तात्पर्य यह है कि यह ऐसे स्थल हैं जहां प्रारंभ से ही प्रार्थनाएं की जाती हैं, भक्तों द्वारा नियमित दर्शन किया जाता है और इनकी नियमित देख-रेख भी होती है.
पुराणों में (इतिहास मौखिक रूप से और बाद में लिखित रूप से हस्तांतरित होने लगा) यह उल्लेख है कि संत पुलिकालमुनिवर ने राजा सिम्मवर्मन के माध्यम से मंदिर के अनेकों कार्यों को निर्देशित किया. पल्लव राजाओं में, सिम्मवर्मन नाम के तीन राजा थे (275-300 सीइ, 436-460 सीइ, 550-560 सीइ). चूंकि मंदिर कवि-संत थिरुनावुक्करासर (जिनका काल लगभग 6ठी शताब्दी में अनुमानित है) के समय में पहले से ही प्रसिद्ध था, इसलिए इस बात की अधिक सम्भावना है कि सिम्मवर्मन 430-458 के काल में था, अर्थात सिम्मवर्मन II. कोट्त्रा वंकुदी में ताम्र पत्रों पर की गई पट्टायम या घोषणाएं इस बात को सिद्ध करते हैं. हालांकि, थंदनथोट्टा पट्टायम और पल्लव काल के अन्य पट्टायम इस और संकेत करते हैं कि सिम्मवर्मन का चिदंबरम मंदिर से सम्बन्ध था. अतः यह माना जाता है कि सिम्मवर्मन पल्लव राजवंश के राजकुमार थे जिन्होंने राजसी अधिकारों का त्याग कर दिया था और आकर चिदंबरम में रहने लगे थे. चूंकि ऐसा पाया गया है कि पुलिकाल मुनिवर और सिम्मवर्मन समकालीन थे, इसलिए यह माना जाता है कि मंदिर इसी काल के दौरान निर्मित हुआ था.
हालांकि, यह तथ्य कि संत-कवि मनिकाव्यसागर चिदंबरम में रहे और अलौकिक ज्ञान को पाया किन्तु उनका काल संत-कवि थिरुनावुक्करासर के बहुत पहले का है और जैसा कि भगवान् नटराज और उनकी विशिष्ट मुद्रा और प्रस्तुति की तुलना पल्लव वंश के अन्य कार्यों से नहीं की जा सकती क्योंकि यह बहुत श्रेष्ठ है, इसलिए यह संभव है कि मंदिर का अस्तित्व सिम्मवर्मन के समय से हो और बाद के काल में भी कोई पुलिकालमुनिवर नाम के संत हुए हों.
सामायिक अंतरालों (साधारणतया 12 वर्ष) पर बड़े स्तर पर मरम्मत और नवीनीकरण कार्य कराये जाते हैं, नयी सुविधाएं जोड़ी और प्रतिष्ठित की जाती हैं. अधिकांश प्राचीन मंदिर भी समय के साथ व नयी सुवुधाओं के द्वारा 'विकसित' हो गए हैं, वह शासक जिन्होंने मंदिर को संरक्षण दिया, उनके द्वार और अधिक बाहरी गलियारे और गोपुरम (पगोडा) का निर्माण करवाया गया. यद्यपि इस प्रक्रिया ने पूजा स्थलों के रूप में मंदिरों के अस्तित्व को बने रहने में सहायता की, किन्तु एक पूर्ण पुरातात्विक या ऐतिहासिक दृष्टि से इन नावीनिकर्नों ने बिना मंशा के ही अम्न्दिर के मूल ववास्तविक कार्यों को नष्ट कर दिया - जो बाद की भव्य मंदिर योजनाओं से समानता नहीं रखते थे.
चिदंबरम मंदिर भी इस आम चलन का अपवाद नहीं है. अतः मंदिर की उत्पत्ति और विकास काफी हद तक साहित्यिक और काव्यात्मक कार्यों के सम्बंधित सन्दर्भ द्वारा निष्कर्षित है, मौखिक जानकारियो दिक्षितर समुदाय द्वारा और अब शेष रह गयी अत्यंत अल्प पांडुलिपियों व शिलालेखों के माध्यम से पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित होती गयी.
संगम साहित्य के माध्यम से हम यह जानते हैं कि कि चोल वंश के शासक इस प्राचीन धार्मिक स्थल के महान भक्त थे. चोल राजा कोचेंगंनन के बारे में यह कहा जाता है कि उनका जन्म राजा सुभदेवन और कमलादेवी के बाद हुआ था, जिनकी थिलाई स्वर्ण हॉल में पूजा की जाती है. अतः इस बात कि सम्भावना है कि स्वर्ण हॉल सहित यह मंदिर आज से हजारों वर्ष पूर्व से अस्तित्व मे है.
मंदिर की वास्तुकला - विशेषकर पवित्र गर्भ गृह की वास्तुकला चोल वंश, पण्डे वंश या पल्लव वंश के अन्य किसी भी मंदिर की वास्तुकला से मेल भी नहीं करती है. एक सीमा तक, मंदिर के इस रूप में कुछ निश्चित समानताएं है जो चेरा वंश के मंदिर के रूपों से मेल करती हैं लेकिन चेरा राजवंश का सबसे प्राचीन सन्दर्भ जो उपलब्ध है वह कवि-संत सुन्दरर (सिर्का 12 वीं शताब्दी) के काल का है. दुर्भाग्यवश चिदंबरम मंदिर या इससे सम्बंधित कार्य के उपलब्ध प्रमाण 10 वीं शताब्दी और उसके बाद के हैं.
 
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