इसकी कथा बैद्यनाथ ज्योर्तिलिंग के प्रकट होने से अद्भूत चरित्र वाले चरवाहा बैजू की असीम शिवभक्ति से जुड़ी हुई है। बाबा बैद्यनाथ धाम अपने पीछे एक लंबा इतिहास लिए खड़ा है। ब्रह्म के पौत्र एवं पुलस्त्य के पुत्र विश्रवा की तीन पत्िनयां थी। पहली पत्नी के गर्भ से धनपति कुबेर, दूसरी पत्नी द्वारा रावण तथा कुंभकरण तथा तीसरी पत्नी द्वारा हरिभक्त विभीषण का जन्म हुआ। चारों पुत्रों में से रावण अत्यंत बलवान और बुद्धिमान थे। रावण कैलाश पर्वत पर जाकर शिवजी की तपस्या करने लगे लेकिन बहुत समय बीत जाने के बाद भी शिवजी उन पर प्रसन्न नहीं हुए। बाद में रावण वहां से हट कर हिमालय पर्वत पर पुन: उग्र तपस्या करने लगे फिर भी उन्हें शिव के दर्शन नहीं मिले। यह देख रावण अत्यंत चिंतित हो गए और अपने अपार बल तथा शरीर को धिक्कारने लगे। अब उन्होंने हवन करना आरंभ किया। जब उससे भी शिव जी प्रसन्न नहीं हुए तब उन्होंने सोचा कि अब अपने शरीर को अग्नि में भेंट कर देना चाहिए। ऐसा सोच कर उसने दस मस्तकों में से एक-एक को काट कर अग्नि में हवन करने लगे। जब नौ मस्तक कट चुका और दसवें मस्तक को काटने के लिए तैयार हुए तो शिवजी प्रसन्न होकर उनके समक्ष प्रकट हुए। शिवजी ने उनके हाथ पकड़ लिए और वर मांगने को कहा। शिव की कृपा से उनके सभी मस्तक अपने अपने स्थान से जुड़ गए। हाथ जोड़ कर प्रार्थना करते हुए रावण ने वर मांगा- हे प्रभो! मैं अत्यंत पराक्रमी होना चाहता हूं। आप मेरे नगर में चल कर निवास करें। यह सुन कर शिवजी बोले- हे रावण! तुम हमारे लिंग को उठा कर ले जाओ और इसका पूजन किया करो परंतु यदि तुमने लिंग को मार्ग में कहीं रख दिया तो वह वहीं पर स्थित हो जाएगा।
रावण के कहने पर शिवजी दो रूपों में विभाजित हो गए और दो लिंग स्वरूप धारण किए। रावण उन दोनों शिवलिंगों को कांवर में रख कर चल पड़े। कुछ दूर चलने के बाद रावण को लघुशंका करने की इच्छा हुई। रावण लघुशंका निवारण के लिए अत्यंत व्याकुल हो उठा और किसी व्यक्ति की तलाश करने लगा जो कुछ देर तक कांवर को उठाए रखे। उसी समय वहां एक चरवाहा दिखाई दिया। रावण ने उससे प्रार्थना किया कि कुछ देर तक कांवर को अपने कंधों पर उठाये रखे जिससे मैं लघुशंका कर लूं। चरवाहे ने उत्तर दिया- हे रावण! मैं दो घड़ी इस कांवर को लिए रहूंगा। यदि इस समय के अन्दर तूने कांवर को न लिया तो मैं इसे जमीन पर रख दूंगा। इतना सुन कर रावण उसे कांवर देकर लघुशंका करने बैठ गया। रावण के अहंकार को नष्ट करने के लिए वरूण ने उसका मूत्र इतना अधिक बढ़ा दिया कि उस चरवाहे ने कांवर का भार सहन नहीं कर पाया और कांवर को जमीन पर रख दिया। पृथ्वी पर रखते ही शिवलिंग उसी स्थान पर दृढ़ता पूर्वक जम गए। लघुशंका से उठने के बाद रावण ने उन लिंगों को उठाने का अथक प्रयास किया लेकिन सफल नहीं हो सका और अंत में निराश होकर घर लौट आया। रावण के चले जाने पर सभी देवताओं ने आकर वहां शिवलिंग की पूजा की। शिवजी ने प्रसन्न होकर उन्हें अपना दर्शन दिया और वर मांगने को कहा। सभी देवताओं ने प्रार्थना करते हुए उनसे कहा- हे स्वामी! आप हमें अपनी भक्ति प्रदान करें और कृपा पूर्वक सदैव यहीं स्थित रहें। आप मनुष्यों को वैद्य के समान आनंद प्रदान करने वाले हैं अस्तु आपका नाम बैद्यनाथ है।
अब वह चरवाहा जिसने रावण के कहने पर कांवर उठा कर रखा था नित्यदिन लिंग की पूजा करने लगा। उसका नाम बैजू था। जब तक वह उस लिंग की पूजा नहीं कर लेता तब तक भोजन नहीं किया करता था। अनेक प्रकार के विघ्न आने पर भी उसने अपना नियम कभी नहीं छोड़ा अन्तत: एक दिन उसकी दृढ़ भक्ति को देख कर वामांग में भगवती गिरिजा से सुशोभित शिवजी ने उन्हें दर्शन दिया और उसे वर मांगने को कहा। प्रेम की अधिकता में भर कर उस चरवाहे बैजू ने कहा-हे प्रभु! आपके चरणों में मेरा प्रेम बढ़ता रहे और मैं आपके भक्तों की सेवा किया करूं और आप मेरे नाम से प्रसिद्ध हों। शिवजी एवमस्तु कह कर उस लिंग में प्रवेश कर गए। तब से बाबा बैद्यनाथ को संसार बाबा बैजनाथ के नाम से भी जाना जाने लगा।