कार्तिकेय भगवान

कार्तिकेय भगवान्

शिव शंकर के पुत्र भगवान् कार्तिकेय, जिन्हें दक्षिण भारत में मुरुगन स्वामी, सुब्रह्मण्यम स्वामी नामो से भी पुकारा जाता है। उनके सम्बन्ध में यह बात प्रचलित है कि वे मयूर पर सवारी करते है तथा निरंतर गतिशील रहते है। भगवान् कार्तिकेय जिन्हें अग्निनंदन, सनत कुमार, गांगेय, क्रौंचारी के नामो से भी संबोधित किया जाता है। देवताओं के सेनापति कहलाये जाते है। 

उनका जीवन में एक मात्र उद्देश्य है शिवत्व अर्थात कल्याणकारी श्रेष्ठ विचारों का प्रचार प्रसार करना। इस कार्य के लिए उन्होंने अखंड ब्रहमचर्य धारण किया है। जहा भगवान् श्री गणेश माँ पार्वती के प्रिय पुत्र है वही भगवान् कार्तिकेय भगवान् शिव के परम प्रिय पुत्र है। भगवान् कार्तिकेय में शिव जी का सम्पूर्ण व्यतित्व प्रतिबिंबित होता है। शिव जी जैसा वैराग्य, भोलापन, सांसारिकता से दूर लोक कल्याण की भावना ये सभी गुण उनमे भी समाहित है

कार्तिकेय जी द्वारा कभी भी स्वयं को महिमा मंडित करने का प्रयास नहीं किया गया अपितु उन्होंने अपने पिता शिव शंकर का गुण गान, उनके गुणों का प्रचार करके उन क्षेत्रों में धर्म की स्थापना की जहा द्रविड़ संस्कृति विद्यमान थी। 

कार्तिकेय जी पहला उदाहरण ऐसा है जो इस कारण पूजित व वन्दित हुए कि उन्होंने निज पूजा करवाने के बजाय शिव पूजा पर जोर दिया। कार्तिकेय जी निरंतर सक्रियता रहने का धोतक है उनका जीवन यह सन्देश देता है कि सक्रिय रह कर निरंतर शिव प्रचार अर्थात श्रेष्ठ कर्म करने से स्वतः शिव अर्थात परम पिता परमात्मा की प्राप्ति हो सकती है।

प्राचीनकाल में एक कथा का वर्णन मिलता है जिसमें कहा जाता है कि, ताड़कासुर नामक एक दुष्ट राक्षस था जिसका वध  कार्तिकेय देव द्वारा किया गया था। आखिर त्रिदेवो सहित समस्त देवी देवता उसका वध करने मे क्यो असमर्थ हो गये थे?

यह सत्य है कि उसे ब्रह्मदेव से ताड़कासुर को बहुत सारे वरदान प्राप्त थे। ताड़कासुर प्रखर पुरुषार्थी होने के साथ अजेय पराक्रमी भी था। 
किन्तु वह असत्य, अनाचार, अन्याय का प्रतिनिधि था और उसका वध मात्र बाहुबल से किया जाना संभव नही था। असत्य की सत्ता को बेदखल करने के लिये नैतिक बल की आवश्यकता होती है। ताड़कासुर के वध के लिये शिव पुत्र का चयन का क्या अर्थ हो सकता है?

शिव अर्थात लोक कल्याण के देवता, शक्ति अर्थात सत्य पर मर मिटने की प्रखर इच्छा शक्ति और इन दोनो के संयोग से जो निश्छलता लिये सन्तति जन्म लेती है। वह कुमार कार्तिकेय के रूप मे अवतरित होती है। कार्तिकेय ने बाल्य अवस्था मे देवताओं का नेत्रत्व कर आसुरी शक्तियो के प्रतिनिधी ताड़कासुर का नाश किया। 

इस कथा से आशय यह है कि, बालक सी निश्छलता लिये, जो व्यक्ति नैतिक बल को लेकर, सज्जन शक्तियो को साथ लेकर, सत्य के लिये संघर्ष करता है, व्ह बडी से बडी बुराई को परास्त करने का सामर्थ्य रखता है। अधिकतर सत्य के प्रवक्ता इसलिये अपने उद्देश्य की पूर्ति मे विफल हो जाते है क्योंकि उनके भीतर का नैतिक बल निर्बल होता है। क्योकि वे स्वयम जाने-अनजाने प्रपंचो, पाखंडो से घिरे रहते है। 

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